भारतीय घरेलू कामगार न्याय की मांग कर रहे हैं। शहरी महिला कामगार यूनियन (एसएमकेयू) की सह-संस्थापक, अनीता कपूर बताती हैं कि ‘घरेलू कामगारों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे एक साथ मिलकर उन मुद्दों के बारे में बारे में बात करें जो कोविड-19 महामारी के दौरान हुआ जिसका सामना वे आज भी कर रहे हैं। यह सुंदरी की कहानी है, जो एसएमकेयू के समर्थन से चैताली हलदर द्वारा लिखित और स्वाती सिंह द्वारा संपादित की गई है।
बिहार के मधुबनी ज़िले की रहने वाली सुंदरी केवट जाति के एक निम्नवर्गीय परिवार से है। परिवार में माता-पिता, दो बहन और एक भाई है। शुरुआती दौर में उसके माता-पिता बेलदारी का काम करके परिवार का पेट पालते थे। आर्थिक तंगी की वजह से सुंदरी सिर्फ़ पाँचवी कक्षा तक ही पढ़ाई कर पायी। इसके बाद अचानक हुए पिता के देहांत ने सुंदरी और उसके परिवार के जीवन का समीकरण ही बदल दिया। सुंदरी तब पंद्रह साल की थी जब पिता के देहांत के बाद उसकी शादी करवा दी गयी। पढ़ाई करने व स्कूल जाने की उम्र में ससुराल की ज़िम्मेदारी उसके नाज़ुक कंधों पर डाल दी गयी।
गाँव में बाढ़ से लेकर शहर के विस्थापन तक संघर्षों भरी ज़िंदगी
सुंदरी बीस साल की थी जब गाँव में आयी भयानक बाढ़ से उसके परिवार से रहने के लिए छत और पेट पालने के लिए रोज़गार का साधन भी छिन गया। उनके पास रोज़गार की तलाश में अब शहर जाने के अलावा और कोई उपाय नहीं था, इसलिए सुंदरी और उसके पति अपने एक बेटे और दो बेटी के साथ दिल्ली आ गए। इस दौरान सुंदरी ये समझ चुकी थी कि इस बड़े शहर में अकेले पति की कमाई से परिवार का पेट पालना मुश्किल होगा। इसलिए उसने आसपास की कोठियों में झाड़ू-पोछा और बर्तन का काम करना शुरू किया। कुछ समय बाद सुंदरी को अपने परिवार के साथ गौतमनगर में आकर बसना पड़ा। यहाँ भी सुंदरी कोठियों में काम करती रही लेकिन उसे यहाँ काम मिलता भी रहा और छूटता भी रहा।
इसी बीच साल 1999 से साल 2000 के बीच में सुंदरीकरण के नामपर गौतमनगर की भी झुग्गी तोड़ दी गयी और यहाँ रहने वाले लोगों को गौतमपुरी में विस्थापित कर दिया गया। ये विस्थापन अपने आप में एक बुरा अनुभव था। सुंदरी का परिवार मानो अस्त-व्यस्त हो गया। बच्चों की पढ़ाई और जान-पहचान वालों व रिश्तेदारों से नाते टूट गए। बच्चों के स्कूल से उनके काग़ज़ात भी नहीं मिल पाए, जिसके चलते उन्हें आगे पढ़ाई से जुड़ने में ढ़ेरों कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। सुंदरी का सभी काम भी छूट गया। इस विस्थापन ने एक़बार फिर उसके परिवार को असुरक्षित ज़िंदगी जीने को मजबूर कर दिया। अब उसे एकबार फिर से काम की तलाश करनी पड़ी, जो अपने आप में किसी चुनौती से कम नहीं था। इसके बाद धीरे-धीरे हर दिन के संघर्षों के साथ उसकी ज़िंदगी बीतने लगी। सुंदरी लॉकडाउन से पहले एक कोठी में खाना बनाने का काम करती थी। कोठी में काम करते हुए एकदिन सुंदरी के पैर में चोट लग गयी और उसकी मालकिन ने उसकी मदद भी की। लेकिन इसके बाद दुबारा उसे काम पर नहीं रखा।
कोरोना महामारी से बढ़ी चुनौतियों जूझती सुंदरी
क़रीब 56 साल की उम्र में सुंदरी की ज़िंदगी में कोरोना महामारी का दौर एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया, जब उसके परिवार की स्थिति बहुत ज़्यादा ख़राब हो गयी। सुंदरी के सारे काम छूट गए और घर में आर्थिक तंगी बढ़ने लगी। ऐसे में जब सुंदरी काम की तलाश में कोठी में जाती तो मालकिन उसे ये बोलकर भगा देती कि ‘पहले वैक्सीन लेकर आओ।‘ ज़्यादा उम्रदराज होने की वजह से भी लोग उसे काम नहीं देते थे। इस दौरान उसके पति की तबियत ख़राब होने की वजह से उसका काम भी छूट गया। सुंदरी के बेटे के पास एक अच्छी नौकरी थी, लेकिन उसने नौकरी छोड़कर रिक्शा चलाने का काम शुरू कर दिया था। साथ ही, बेटे को नशे की लत भी लग चुकी थी, जिसके चलते सुंदरी को अपने बेटे से किसी भी तरह की आर्थिक मदद की कोई उम्मीद नहीं थी। बेटे का अपना परिवार था, जिसकी ज़िम्मेदारी उसपर थी। लेकिन इसके बावजूद वो दो दिन रिक्शा चलाने के बाद घर काम बंद करके बैठ जाता, जिससे परिवार में लगातार आर्थिक तंगी बनी रहती थी।
कोरोना से पहले सुंदरी के पति ने अपने बेटे को अपना और सुंदरी का वृद्धा पेंशन का फार्म भरकर जमा करने के लिए दिया। पर लापरवाह बेटा उस फार्म को घर में रखकर दारू पीने में लग गया और फिर इसके बाद लॉकडाउन शुरू हो गया, जिसकी वजह से उन्हें इस दौरान वृद्धा पेंशन भी नहीं मिल पायी। कोविड के इस कठिन समय में सुंदरी का जुड़ाव शहरी घरेलू कामगार यूनियन से हुआ, जिनकी मदद से उसे और उसके परिवार को कच्चा राशन और पके हुए खाने की भी मदद मिली थी।
विस्थापन और आर्थिक तंगी से ज़ारी सुंदरी का संघर्ष
साल 2022 में सुंदरी ने बदरपुर के एक प्राइवेट स्कूल में काम करना शुरू किया पर वो इस काम से खुश नहीं थी। स्कूल की प्रिंसिपल उसके साथ बहुत किच-किच करती थी। उसे हर बात पर रोक-टोक लगाती थी। ऐसे में सुंदरी के मन में बहुत बार ये ख़्याल आया कि वो ये काम छोड़ दे। लेकिन इसी ख़्याल के साथ उसके ज़हन में अपने बीमार पति और घर की आर्थिक तंगी की तस्वीर सामने आ जाती, जिसे याद करके सुंदरी के मन में ख़्याल आया कि अगर वो ये काम भी छोड़ देती है तो पति की दवाइयों का खर्च कैसे लाएगी। इसलिए उसने बेबस होकर अपने इस काम को जारी रखा।
किन्हीं कारणवश कुछ समय बाद सुंदरी का वो काम भी छूट गया। इससे उसकी आर्थिक स्थिति और भी ज़्यादा बुरी हो गयी। उसका पति बहुत बीमार है और हॉस्पिटल में उसका डायलिसिस चल रहा है। सुंदरी को भी अपने पति के साथ हॉस्पिटल में ही रहना पड़ता है। खाने और हॉस्पिटल के खर्च का जुगाड़ करने में उसके ऊपर क़र्ज़ का भार लगातार बढ़ता जा रहा है। ऐसा लगता है मानो सुंदरी की ज़िंदगी से कठिनाइयाँ कम होने का नाम ही नहीं ले रही है, ढलती उम्र के साथ उसपर चुनौतियों का भार लगातार बढ़ता जा रहा है। गाँव में बाढ़ से लेकर शहर में विस्थापन के साथ ज़ारी संघर्ष में खुद को सँभालना, पति की बीमारी और ग़ैर-ज़िम्मेदार लापरवाह बेटे के साथ सुंदरी की ज़िंदगी उलझ-सी गयी है।