महिला घरेलू कामगार कोविड-19 महामारी से बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। भारत में, काउंटरिंग बैकलैश पार्टनर जेंडर एट वर्क दिल्ली में घरेलू कामगारों के साथ सहयोग कर रहा है और उनकी कहानियों को आगामी स्टोरीबुक में संकलित कर रहा है, जो 17 जुलाई को लॉन्च होगी।

बिखरी-सी ज़िंदगी

भारतीय घरेलू कामगार न्याय की मांग कर रहे हैं। शहरी महिला कामगार यूनियन (एसएमकेयू) की सह-संस्थापक, अनीता कपूर बताती हैं कि ‘घरेलू कामगारों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे एक साथ मिलकर उन मुद्दों के बारे में बारे में बात करें जो कोविड-19 महामारी के दौरान हुआ जिसका सामना वे आज भी कर रहे हैं। यह रूपाली की कहानी है, जो एसएमकेयू के समर्थन से चैताली हलदर द्वारा लिखित और स्वाति सिंह द्वारा संपादित की गई है।

बिखरी-सी ज़िंदगी

उत्तर प्रदेश के बदायूँ ज़िले की रहने वाली रूपाली वाल्मीकि समुदाय से है। तीन बेटे और एक बेटी के साथ उसके माता-पिता सालों पहले काम की तलाश में दिल्ली आ गए थे। दिल्ली में परिवार का पेट पालने के लिए पिता नाली-सफ़ाई का काम करते थे और माँ कोठियों में घरेलू काम करती थी। रूपाली का परिवार अस्सी के दशक में गौतमनगर आकर बस गया। साउथ एक्स की एक कोठी में धीरे-धीर उसकी मम्मी काम करने लगी। पापा को एक ऑफ़िस में काम मिला। उनकी ज़िंदगी चल रही थी। लेकिन इसी बीच रूपाली के पापा का देहांत हो गया। इससे उनके घर की स्थिति बहुत ज़्यादा ख़राब हो गयी।

साल 1999 में जब रूपाली बारह साल की थी और पाँचवी कक्षा में पढ़ती थी, तब ‘सुंदरीकरण’ के नामपर गौतमनगर की झुग्गियों को तोड़ने का सिलसिला शुरू हुआ। इस दौरान उन्हें झुग्गियों से विस्थापित कर गौतमपुरी की बस्तियों में बसाया गया। ये पुनर्वास अपने में बहुत भयावह और तकलीफ़देह था। सालों पहले बसाए बसेरे तोड़ दिए गये। लोगों के रोज़गार चले गए और बच्चों की पढ़ाई बंद हो गयी। दिसंबर की सर्दी में रेलवे लाइन के पास त्रिपाल-पन्नी डालकर रूपाली के परिवार को कई महीनों रहना पड़ा। रूपाली की मम्मी उसे पढ़ाना चाहती थी, लेकिन बड़े भाई ने ये कहकर मना कर दिया कि ‘स्कूल के लिए कौन इतनी दूर जाएगा।‘ इसके बाद उसके परिवार को एक प्लाट को लेकर डीडीए, इंजीनियर और अन्य विभाग के चक्कर काटने पड़े, तब जाकर एक प्लाट का टुकड़ा सात हज़ार रुपए देने के बाद उन्हें मिला। उनकी ज़िंदगी मानो बीस साल पीछे चली गयी थी, क्योंकि सिर्फ़ मकान आने से ज़िंदगी थोड़े ही बदल जाती है। उनकी ज़िंदगी का ताना-बाना बिखर गया था। रिश्ते-नाते सब एक-दूसरे से अलग हो गए थे। भले ही वो झुग्गी-बस्ती थी पर उसकी मम्मी का काम, घर के पास था। स्कूल पास था। पानी-बिजली थी। यहाँ आकर उन्हें इन बुनियादी सुविधाओं के लिए वंचित होना पड़ा और बहुत परेशनियाँ झेलनी पड़ी। रूपाली पंद्रह साल की उम्र से अपनी मम्मी के साथ कोठियों में काम करने के लिए साउथ एक्स ज़ाया करती थी। उसके बाद पंद्रह साल की उम्र में ही उसने अपनी मर्ज़ी से शादी कर ली। ये शादी सिर्फ़ दो साल तक चली। क्योंकि रिश्ते में बहुत तनाव और हिंसा बढ़ गयी थी। वो अपनी मम्मी के घर नौ महीने तक अपने बेटे को लेकर रही। फिर उसने अपनी पसंद से दूसरी शादी कर ली और इस शादी से एक बेटी है। आज रूपाली का बेटा 18 साल और बेटी 9 साल की है।

चुनौतियाँ: शहरों में महिला कामगार होने की

रूपाली आज भी साउथ एक्स में काम करने जाती है। साउथ एक्स में वो पहले चार कोठियों में काम करती थी, जिसमें अब काम कम हो गए है और उसकी महीने की पगार भी मात्र दो-तीन हज़ार ही रह गयी है। इन्हीं पैसों से वो अपने परिवार का गुजर बसर करती है। एकदिन कोठी में काम करते हुए रूपाली को सिर में किसी नुकीली चीज़ से चोट लग गयी और ज़्यादा खून निकलने की वजह से वो बेहोश गयी। इलाज में क़रीब तीस-चालीस हज़ार रुपए खर्च हुए, जिसका भुगतान मालकिन ने किया। लेकिन इसके बाद उन्होंने रूपाली को दुबारा काम पर नहीं रखा। सही तरीक़े से इलाज न होने की वजह से इस चोट के बाद से उसे दिमाग़ से जुड़ी समस्याएँ होने लगी। अक्सर काम के दौरान उसकी स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएँ सामने लगी, जिसका असर उसके काम पर भी होने लगा। काम कम होने लगे और आमदनी भी घटने लगी।

अभी के समय में रूपाली साउथ एक्स में एक कोठी में काम करती है, जहां उसे सिर्फ़ कुछ ही समय के लिए रखा गया है जब तक उसकी मालकिन को दूसरा कुक नहीं मिल जाता। कोविड के बाद से घरेलू काम में आए बदलाव के बारे में रूपाली बताती है कि ‘कोविड से पहले हम घरों-कोठियों में झाड़ू-पोछा और बर्तन का काम करके वापस अपने घर लौट जाते थे। लेकिन कोविड के बाद से सभी लोग चौबीस घंटे के लिए काम पर रखने लगे है, इसलिए खुला काम (रोज़ काम पर आने और वापस जाने का काम) करवाने के लिए अब कोई तैयार नहीं होता है।‘’

मालिक को चौबीस घंटे घरों में रहकर काम करने वाला कामगार चाहिए होता है, जो अब रूपाली के लिए अपने स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं और परिवार की ज़िम्मेदारियों की वजह से कर पाना मुश्किल है। यही वजह है कि अब घरेलू काम के क्षेत्र में पुरुष कामगारों की संख्या बढ़ने लगी है, क्योंकि वे आसानी से कोठियों में चौबीस घंटे काम करने के लिए उपलब्ध होते है और ये चलन कोविड के बाद से ज़्यादा बढ़ा है, जिसकी वजह से महिला घरेलू कामगारों के रोज़गार के अवसर कम होने लगे है।

रूपाली ये भी बताती है कि, ‘कोविड से पहले कोठियों में घरेलू कामगार होने की वजह से भेदभाव होता था, लेकिन काम करने वालों की जाति नहीं पूछी जाती थी। लेकिन अब अगर काम खोजने जाओ तो पहले जाति पूछी जाती है।

कहाँ रहती हो? किस जाति की हो? जैसे सवाल अब अक्सर घरेलू कामगारों के सामने खड़े होते है। आगे शर्त होती है कि – ‘अगर बाथरूम साफ़ करेगी तो बर्तन नहीं धोएगी। ज़्यादा छुट्टी नहीं मिलेगी। वग़ैरह-वग़ैरह।‘ इस नाप-तौल के चक्कर में अब उन्हें काम नहीं मिलता है। कोविड के दौरान बढ़ी बेरोज़गारी की वजह से अब घरेलू कामगार महिलाएँ अपनी कोई भी बात नहीं रख सकती है, उन्हें हर शर्त और कीमत को मानकर काम करना पड़ता है। क्योंकि कोविड के बाद काम के मौक़े कम हो गए।

A hand-drawn illustration of a domestic worker. They are sitting at a dressing table looking at themselves in the mirror, with a sad expression on their face. There is a plaster on their head and the table is covered in bills.

Illustration by Mrinalini Godara.

यूनियन से जुड़ाव और एक उम्मीद

कोविड दौरान रूपाली का जुड़ाव शहरी महिला कामगार यूनियन से हुआ। उस समय शहरों में कोविड के चलते साइबर कैफ़े जैसी सारी दुकाने बंद हो गयी थी और दूसरी तरफ़ सरकार की कल्याणकारी योजनाएँ ऑनलाइन हो गयी थी, जो मज़दूरों की पहुँच से बाहर थी। तब शहरी महिला कामगार यूनियन ने ज़न सूचना केंद्र के माध्यम से सरकारी योजनाओं से जोड़ने के लिए मज़दूरों के ऑनलाइन फार्म भरने व नाम चढ़वाने का काम शुरू किया। इसी दौरान रूपाली यूनियन की सदस्य गुड़िया से अपने राशन कार्ड में नाम चढ़वाने के लिए मिली। तभी से रूपाली का संगठन से जुड़ाव बना। उस समय रूपाली को यूनियन से दो से अधिक बार राशन मिला, जिस मदद से रूपाली  बहुत खुश हुई। इसके बाद रूपाली  संगठन से जुड़कर अपना योगदान राशन की लिस्ट बनवाने और महिलाओं को यूनियन से जोड़ने जैसे काम के ज़रिए देने लगी।

रूपाली के पति की कमाई क़र्ज़ उतारने और इलाज के खर्चे में चली जाती है। वहीं बीमारी की वजह से रूपाली को नए काम नहीं मिल पा रहे है, जिसके चलते उसे और उसके परिवार को बुरी तरह आर्थिक तंगी का शिकार होना पड़ रहा है। अपने मौलिक अधिकारों से वंचित सम्मानजनक ज़िंदगी से दूर रूपाली ने बचपन से जिस भेदभाव और संघर्ष को जिया है वो का भी लगातार क़ायम है। ऐसा लगता है मानो रूपाली एक जाल में फँस चुकी है, जहां चारों ओर समस्याएँ है। उसकी आवाज़ और मनोभावों से ऐसा लग रहा था जैसे पैंतीस साल की उम्र में वो बेबस और लाचार बुढ़ापा जीने को मजबूर है। लेकिन सबके बीच जब वो यूनियन में आती है तो उसके चेहरे पर एक अलग-सी चमक होती है। यहाँ वो अपना सुख-दुःख दूसरी महिलाओं से बाँटती है और दूसरी महिला कामगारों की मदद करती है, जो उसके चेहरे पर मुस्कान की वजह भी बन जाती है।

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